Rakhi mishra

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एक जात है सभी (प्रेरक लघुकथाएं)

समारोह स्थल पर तो जो होना था वही हुआ। यानी भाषण¸ हार - फूल¸ इनकी ऐसी तो उनकी वैसी। और होता भी क्या है खैर इन राजनीतिक समारोहों में। भीड़ अपना किराया वसूल चलती बनी और टेंट हाऊस वाले ने सिर पर खड़े रहकर जब तक खुद का हिसाब बराबर नहीं कर लिया तब तक वहाँ से हिला तक नहीं। पुराना अनुभवी लगता था। सारे जमीनी से लेकर आसमानी कार्यकर्ता¸ समारोह की सफलता का सेहरा अपने सिर बँधवाने के लिये सामूहिक विवाह समारोह की भाँति रेल पेल मचा रहे थे।


इन सभी रूटीन हैप्पनिंग्स से ऊबते हुए मैंने एक पत्रकार की हैसियत से इस बार की स्टोरी में कुछ नया डालने का सोचा। सारा कार्यक्रम समाप्त होने के बाद जब कार्यकर्ताओं की भीड़ भी छँट गई तब उस स्टेडियम का एक सफाईकर्मी अपनी ही धुन में वहाँ के खाली डिस्पोजेबल गिलास¸ कुचले हार¸ कागज आदी कचरे को ठिकाने लगा रहा था। निर्लिप्त भाव चेहरे पर लिये वह साक्षात निर्गुण पंथ का समर्थक दिखाई दे रहा था। उसको लगभग चौंकाते हुए मैं उसके पास पहुँचा और यह छुपाते हुए कि मैं कोई पत्रकार हूँ ¸ उससे बातें करता हुआ उसके मन की टोह लेता रहा। बात ही बात में मैंने उससे पूछ ही लिया कि चूँकि वह लगभग हर कार्यक्रम का जो उस स्टेड़ियम में होता है¸ सक्षी रहा है तब अलग - अलग राजनीतिक पार्टियों के आयोजनों में क्या भिन्नता उसे नजर आती है?


मुझे एक्स रे मशीन की नजर से घूरता हुआ वह बोला¸ "देखो बाबू! नेता जात एक ही होती है। पिछले हफ्ते गंदगी हटाने का संकल्प लेकर समारोह कर गये और इस हफ्ते सफाई आंदोलन की रूपरेखा बनाने को जमा हुए थे। लेकिन दोनों ही बार हमारे लिये इस गंदगी का सिरदर्द ही छोड़ गये।"


फिर मुझे अपने पैड में कुछ लिखता देख वह हँसते हुए कहने लगा¸ "देखो बाबू¸ मुझसे पूछा उसे अपने तक ही रखना नहीं तो ये रिपोर्टरी की नौकरी भी जाएगी हाथ से हाँ! कितने ही बने और बिगड़ गये है यहाँ।"


मैं ठगा सा देखता रहा और वह सफाईकर्मी पुन: निर्गुणी हो चला था।

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